लोक संस्कृति के संवाहकों ने नई पीढ़ी को गुर सिखा कर की नजीर पेश

टिहरी।,  वाकया साल 1956 और 1966 का है जब संस्कृति प्रेमी इंद्रमणि बडोनी जो कि तब एक युवा थे और अपनी लोक संस्कृति को संजोने में खासा दिलचस्पी रखते थे उस दौर में उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का एक पहाड़ी भू-भाग होता था और तब बाहरी परिवेश का अच्छे से अध्ययन कर चुका एक शिक्षित युवा ने आखिरकार तरजीह अपने पहाड़ को ही दी। तकरीबन साल 1953 में उन्होंने उत्तराखंड से अपने जीवन की शुरुआत कर डाली। युवा मन को अपने पहाड़ की लोक-संस्कृति से विशेष लगाव था, जिसके चलते उन्होंने 1950-60 के दशक में लोक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए 26 सदस्यीय एक रंग मंडली का गठन किया। वे बहुत कम समय में ही इस रंग मंडली को स्थापित करने में सफल रहे परिणाम स्वरुप तत्कालीन यूपी सरकार के संस्कृति विभाग ने उनकी लोक-कला को काफी सराहा और तब 54 जिले की लोक विधाएं होने के बावजूद भी उनकी इस विलक्षण प्रतिभा को लगातार दो बार साल 1956 (राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद एवं प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु) के कार्यकाल में और साल 1966 (प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के कार्यकाल) में गणतंत्र दिवस परेड, दिल्ली में प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान किया गया। केदार नृत्य के माध्यम से लोकविधा के धनी संस्कृति प्रेमी इंद्रमणि बडोनी ने पहाड़ के ढ़ोल-दमौ से केदार नृत्य की प्रस्तुति दी। लोक जागर और पंवाड़ा गायन व ढोल सागर में पारंगत 20 वर्षीय शिवजनी और उनकी पत्नी 19 वर्षीय गजला देवी एवं सहयोगी गिराज द्वारा दी गई प्रस्तुति ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल तक को मंत्र मुग्ध कर थिरकने को विवश किया था तो वहीं 1966 में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को टीम ने पहाड़ की महिलाओं का गहना तिमण्या भेंट किया था। तब देश में इस नृत्य की प्रस्तुति दूसरी सर्वश्रेष्ठ आंकी गई थी। उत्तराखंडी संस्कृति की उन सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित करने का काम सुरगंगा संगीत विद्यालय ने किया है। उन्होंने 26 सदस्यीय टीम के उन तीन अहम किरदारों के दिशा-निर्देशन में एक कार्यशाला की शुरुआत की है। उत्तराखंड की लोक संस्कृति में रुचि रखने वाले स्वतंत्र पत्रकार महिपाल नेगी से प्राप्त जानकारी अनुसार ये दल 70 के दशक तक बिखर चुका था। अब उस बिखरी टीम केे तीन अहम किरदारों से विलुप्त होनेे के कगार पर पहुंची लोक संस्कृति को फिर से उनकी सहमति से जीवित रखने का प्रयास  सुरगंगा संगीत विद्यालय करने जा रहा है। सुरगंगा संगीत विद्यालय भातखंडे संगीत महाविद्यालय एवं प्रयाग संगीत विद्या पीठ, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश से एफिलिएटेड है। जो कि विगत सात-आठ सालों से बौराड़ी, नई टिहरी में स्थित है। जिसके प्रबंध निदेशक डॉ0 विकास फोंदणी हैं। 


पहाड़ के ढ़ोल-दमौ से केदार नृत्य की प्रस्तुति कर लोक जागर और पंवाड़ा गायन व ढोल सागर के पारंगत 84 वर्षीय शिवजनी और उनकी पत्नी 83 वर्षीय गजला देवी एवं सहयोगी 80 वर्षीय गिराज टिहरी जिले के घनसाली विकासखंड के ढुंग बजियाल गांव के जंगल की छानियों में निवास करने करते हैं। लोक विधा के धनी इन महानकलाकारों ने नई टिहरी आकर नई पीढ़ी को केदार नृत्य सिखाने का मन बनाया है जिसे नई पीढ़ी भी सीखने में खासा रुचि दिखा रही है। 



  • लोक संस्कृति के संवाहकों से टिहरी जनपद में केदार नृत्य फिर जी उठा। 

  • सुरगंगा संगीत विद्यालय ने की इसकी कार्यशाला शुरु

  • लोक जागर और पंवाड़ा गायन व ढोल वादन करने वाले 84 वर्षीय शिवजनी, उनकी पत्नी 83 वर्षीय गजला देवी और सहयोगी 80 वर्षीय गिराज साल 1956 और 1966 में गणतंत्र दिवस परेड, दिल्ली में संस्कृति कर्मी इंद्रमणि बडोनी जी के निर्देशन में पं0 जवाहर लाल नेहरु एवं इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री कार्याकाल में केदार नृत्य की प्रस्तुति दे चुके हैं।


       सुरगंगा संगीत विद्यालय कोशिश कर रहा है कि कार्यशाला का विस्तार वीरभड़ माधो सिंह भंडारी नृत्य नाटिका तक आगे बढ़ाया जाए। सुरगंगा संगीत विद्यालय में कार्यशाला शुरू हो चुकी है। अब बदलते वक्त में अपनी संस्कृति को सुरगंगा कितनी ऊंचाई तक पहुंचाती है ये तो भविष्य ही बतालाएगा मगर उनका संस्कृति को लेकर उठाया गया ये कदम सराहनीय है और अगर उत्तराखंडी वक्त रहते अपनी संस्कृति को नहीं बचा पाए तो उन्हें अपनी विलुप्त होती संस्कृति के लिए सिवाय प्रायश्चित के कुछ भी नहीं बचेगा। बेहत्तर होगा कि अपनी लोक विधा परंपराओं को ऐसे ही बढ़ावा दिया जाए जिससे उत्तराखंड की आने वाली पीढ़ी भी अपनी संस्कृति और सांस्कृतिक धरोहरों के बारे में जान सके और उत्तराखंडियत जिंदा रह सके।