क्या क्षेत्रीयता राष्ट्रीय पार्टियों पर भारी पड़ेगी?

देहरादून। उत्तराखंड पृथक राज्य गठन के उद्देश्य से उक्रांद का जन्म हुआ था। लेकिन राज्य बनने उपरांत राजनीतिक अपरिपक्वता और व्यक्तिगत स्वार्थों ने दल को बैकफुट पर धकेलने का काम किया। जहाँ पहले विधानसभा चुनाव में  चार विधायक क्षेत्रीयता के नाम पर जीत कर आते हैं तो वहीं दूसरे विधानसभा चुनावों में ये आंकड़ा आठ या उससे आगे बढ़ने के बजाय तीन पर ही सिमट कर रह जाता है और क्षेत्रीयता का दंभ भरने वाली उक्रांद खंडूड़ी सरकार का हाथ थामे लक्ष्य तक पहुंचाने यानी सहारा देने का काम करती है। मगर उत्तराखंडियत पर फिर भी सवाल दर सवाल उठने लगे आखिर जिन उसूलों के लिए उक्रांद के फील्ड मार्शल की पहचान थी या दूसरे शब्दों में कहें तो जिस उद्देश्य को लेकर उन्होंने राज्य निर्माण में योगदान दिया उससे वे कहीं भटकते दिखे। जिस राजधानी की घोषणा कभी 1992 में बागेश्वर के मकर संक्रांति के मेले में कई गई वह शायद ही उनके सरकार में बतौर मंत्री रहते धरातल पर उतर पाई। नतीजतन अगले  विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीयता के बजाय राष्ट्रीय पार्टियों का ही पूरे प्रदेश में बोलबाला रहा उक्रांद 70 विधानसभा में से एक ही विधानसभा तक सिमट कर रह गई। वह प्रीतम सिंह पंवार ही थे जिन्होंने अपने प्रयासों से तब यमुनोत्री विधान सभा से जीत हासिल कर कैबिनेट मंत्री तक का सफर तय किया। उस वक्त भी उक्रांद ने राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस को समर्थन देकर सरकार को मजबूत करने का काम जरुर किया लेकिन संगठन में बिखराव ही रहा। जबकि उस समय भी सरकार की रीति नीतियों को आमजन तक पहुंचा कर उक्रांद को मजबूत किया जा सकता था। उक्रांद चार निर्वाचित सरकार में से दो सरकारों में सहभागी रही बावजूद उसके भी खुद को मजबूत नहीं कर पाई। 


क्या क्षेत्रीय ताकत को एकजुट करने में उक्रांद कामयाब हो पाएगी। जिससे 2022 के विधानसभा चुनावों में बजाय राष्ट्रीय पार्टियों के क्षेत्रीयता के नाम पर उक्रांद प्राथमिकता होगी।  उक्रांद की तैयारियों से शायद ही ऐसा कहीं होते दिख रहा हो हां इतना जरुर है राष्ट्रीय पार्टियों की रीति- नीतियों से उत्तराखंड के हितैषियों का मोहभंग हो रहा है और वे क्षेत्रीयता को ताकत देने का काम कर रहें। उत्तराखंड के हितैषियों के साथ राष्ट्रीय पार्टियों की विचारधाराओं से जुड़े लोग जिनमें साल के शुरुआत में 25 जनवरी 2020 को रक्षा मोर्चा का उक्रांद में विलय हुआ। वहीं क्षेत्रीयता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से अलग-अलग क्षेत्र से वास्ता रखने वाले क्रांतिकारी लोगों ने  हाल ही उक्रांद ज्वाइन की। उनमें शिव प्रसाद सेमवाल, संजय बहुगुणा, संजय थपलियाल, विकास सेमवाल, मोहित डिमरी और संजय उनियाल के साथ लगातार युवाओं की उक्रांद पहली पसंद बनने जा रही है। रक्षा मोर्चा के संरक्षक एसएस पांगती ने तब टिकट बंटवारे को लेकर पार्टी की नीति स्पष्ट करने की बात रखी ताकि बाद में टिकट वितरण को लेकर कोई विवाद न रहने पाए। मगर सवाल एक ही बरकरार पृथक राज्य के लिए लड़ाई लड़ने वाली उक्रांद इन आगंतुकों की उम्मीद पर खरा उतरेगी या दूसरे शब्दों में कहें तो इन्हें तरजीह देकर बूथ लेवल पर काम कर संगठन को धरातल पर खड़ा करेगी या केंद्रीय पदधारी का रोप गांठने तक सीमित रहेगी। जबकि 2022 के विधानसभा चुनाव में वे तीसरा विकल्प के रुप में खुद को मान रहें हैं। बेशक उत्तराखंड एक छोटा पहाड़ी प्रदेश हो लेकिन यहाँ संसाधनों का अपार भंडार है अगर क्षेत्रीय दल यहां के पानी और जवानी को संवारने में थोड़ा भी योगदान दे तो क्षेत्रीयता की गंगा का बहना तय है पर सवाल एक ही रह जाता है कि आखिर पहल कौन करे। विकल्प को भुनाने के लिए क्षेत्रीय दल में नव युवाओं ने सदस्यता ग्रहण तो कर ली है पर क्या दल इन नई सोच वाले  कार्यकर्ताओं जो हाल ही दल में शामिल हुए उनकी कार्यक्षमता का लाभ उठा पाएगा जबकि विधान सभा चुनाव को अभी लंबा वक्त है ऐसे में नई टीम क्या गुल खिलाती है। ये तो भविष्य के गर्भ में है पर इन सभी के अलग अलग से होने के नाते फील्ड में फील्डिंग सजाने अच्छा अनुभव रहा है। अब कप्तान पर निर्भर है कि वे टीम में इनकी जगह कैसे बनाते हैं और 2022 का पंचवर्षीय कप सारे मिथकों को तोड़ अपने नाम कैसे करते हैं।  क्योंकि उत्तराखंड का अब तक 20 वर्षीय यात्रा तो राष्ट्रीय पार्टियों के ही नाम रही।