रहनुमाओं की बसागत में उजड़ने का सिलसिला

भारतीय संविधान की मूल प्रस्तावना ही 'भारत के लोग' से शुरु होती है अब जब हमारे संविधान ने ही भारत के लोगों को मूल अधिकार देकर अधिकार संपन्न बनाया हो तब प्रदेश सरकार को भी अपने संविधान की प्रस्तावना पर गौर फरमाकर बेघर हुए लोगों को अधिकार संपन्न बनाने के लिए कोई पहल तो करनी चाहिए। क्योंकि मामला हाईकोर्ट के अधीन बताया जाता है और उस पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता। मामला चाहे जो भी रहा हो प्रदेश सरकार को तो अपने नागरिकों की सुरक्षा करनी चाहिए थी। वह भी ऐसे वक्त में जब भारत सरकार ने वैश्विक महामारी कोरोना संक्रमण यानी कोविड-19  की बढ़ती तादाद को लेकर गाईड लाइन जारी की है। कहीं न कहीं ये उसका भी उल्लंघन है। जब सुप्रीम कोर्ट नदी नालों पर अवैध निर्वासित लोगों को हटाने को कह सकता हैै और सरकार उनके बचाव में अध्यादेश लाकर उनकी पैरवी कर सकती हैं तो उत्तराखंड और उत्तराखंडियत को बचाने के लिए संघर्ष करने वाले इन उत्तराखंडियों की पैैरवी कौन करेगा?  कहीं न कहीं लह-लहाती फसल उजड़ी है। 84 परिवार घर होते हुए भी आज बेघर होकर हवा महल के शेल्टर हाउस में रहने को मजबूर हैं तो उस पर सरकार को संज्ञान लेकर निवारण की  कोई तो पहल करनी चाहिए। माना कि ये 84 परिवार बिना सरकारी शह के वहां पर अवैैध रुप से रह रहे थे तो सवाल ये उठता है कि  इनको मतदाता पहचान पत्र जारी किसने किया?, किसने इन्हें बिजली, पानी के कनेेक्शन की सुचारु व्यवस्था की? और देश में जब सबकी एक विशिष्ट पहचान यानी आधार कार्ड बन रहे थे तो तब सरकार ने इस पर क्यों आपत्ति नहीं की और उससे भी ज्यादा असंवेदनशीलता क्या हो सकता है कि जब देश-प्रदेश, में होनेे वाले चुनावों में एक संवैधानिक व्यवस्था को बनाए रखने केे लिए शिफॉन कोर्ट (छप्पन कोर्ट ) के निर्वासित 84 परिवार मताधिकार का प्रयोग कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया का निर्वहन कर डबल इंजन की सरकार बनाने में योगदान दे सकते हैं तो फिर इनकी पैरवी कौन करेेेगा? शायद ही तब किसी जनप्रतिनिधि ने आपत्ति की हो। आज समूचे प्रकरण पर जिन्होंने संज्ञान लेकर खोजी मीडिया के पत्रकारिता धर्म का निर्वहन करना था वे तो कहीं नजर नहीं आए मगर एक लोक विधा के धनी जो अपनी कला से कविता पाठ कर यदा कदा सरकारों को चेताने का काम करते हैं ऐसे गौं-गुठ्यार के किशन बगोट उन पीड़ित परिवारों की पीड़ा सुनने जरुर उनके बीच पहुंचे और बेघर हो चुके लोगों की कैसे सहायता की जाए इस ओर काम करते नजर आ रहे हैं। जबकि ये राजनीति के बजाय उन लोगों के जीवन को कैसे पटरी पर लाया जाए ऐसा समय है। आज उनके बीच से वह भाई भी न जाने कहाँ चले गए जो कभी अपनी कलाई पर बहिनों से रक्षा बंधन पर राखी बंधवातेे थे। अब वे बहिनें जो कल तक राखी बांधती थी उन्हें याद कर रहीं है मगर भाई है कि जानकर भी बहिनों के दर्द से अनजान बनें बैठे हुए हैंं। गौं-गुठ्यार की टीम जब उन पीड़ितों से दर्द जानने छप्पन कोर्ट पहुुंची तो पीड़ित परिवार में आस जगी कोई तो उनकी खैर लेने पहुंचा। ये 84 परिवार खुद को तकरीबन चलीस-पचास सालों से वहां के निवासी बता रहे हैं। पीड़ित कहते हैं कि किसी भी स्थान का विकास का होना अच्छी पहल हैै। मगर एकाएक पर्यटन की सुध लेकर उत्तराखंडियों को उनके घर से बेघर करना कहां तक उचित है? वे कहते इस वैश्विक महामारी के बीच में जब लोग अपने घरोंं में कैद हैं और उत्तराखंड की सरकार उन्हें बजाय सुरक्षा के घरों से खदेड़ रही हो तो कैसे हम सरकार में खुद को सुरक्षित समझें। वे लोग कहते हैं कि सरकार केे किसी भी जनप्रतिनिधि ने शायद ही उनकी सुध ली हो।  उन 84 परिवारों के साथ कोई भी जनप्रतिनिधि खड़ा नहीं है। खैर 84 परिवार 2022 की प्रतीक्षा में है। कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय कहते हैं कि मुझे मामले की जानकारी नहीं है मगर इतना जरुर है कि कैसे कोई सरकार बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के प्रदेश के आम नागरिकों को बेघर कर सकती है। सरकार का कार्य ही आमजन की व्यवस्था को बनाए रखना हैै। वनाधिकार कांग्रेस विषय का अध्ययन कर पीड़ित परिवारों को न्याय दिलाने की हर संभव कोशिश करेगी। 


पूर्व दर्जाधारी एवं वरिष्ठ भाजपा नेता रवींद्र जुगरान ने विषय का संज्ञान लेकर मुख्य सचिव को उन 84 परिवारों के जब तक कोई स्थाई व्यवस्था नहीं होती तब तक वैकल्पिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए पत्र लिखा है। 


आप पार्टी केे प्रदेश मीडिया प्रभारी डॉ0 राकेेेश काला कहते हैं कि आप उन परिवारों के न्याय की खातिर उनके साथ खड़ी हैै। जब लोगों को कोरोना काल में सरकार घर पर रहने की नसीहत दे रही हो तब 84 परिवारों के परिवारीजनों सहित बेघर किया जाना उचित नहीं है अगर कहीं कोई आपत्ति थी ही तो इनके पुनर्विस्थापन का संज्ञान लेकर सरकार को कोर्ट से समय लेना चाहिए था मगर सरकार ने इस प्रकरण पर शायद ही ऐसा किया हो। सरकार को वक्त की गंभीरता को ध्यान में रखते कोई कदम उठाने चाहिए। क्योंकि जिस रफ्तार से कोरोना का कहर प्रदेश में फैल रहा है उसके मद्देनजर उनका एक समुदाय केे रुप में रहना जनहित में नहीं है।


वहीं प्रदेश सचिव कांग्रेस कमेटी के नरेन्द्र राणा कहते हैं कि कोर्ट के आदेशों का पालन किया जाना जरुरी है मगर जब महानगर देहरादून में नदी क्षेत्र में अवैैध रुप से रह रहे लोगों पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश होते हैं तो फौरन इस पर अध्यादेश लाए जाने की जरुरत पड़ती है ये तो 84 परिवारों के भविष्य का सवाल था सरकार जिम्मेदारी सेे कैसे पल्ला झाड़ सकती है? कांग्रेस इन 84 परिवारों के साथ खड़ी है। 


वहीं वरिष्ठ भाजपा नेता जितेंद्र नेगी कहते हैं कि देश के संविधान ने देशवासियों को समानता का अधिकार दिया है  समूचे प्रदेश एक समान नीति लागू की जानी जरुरी है। क्योंकि देश के प्रधान सेवक सभी को आवास मुहैया करवाने की दिशा में प्रयासरत हैं उनका सपना साकार किया जाना मौजूदा वक्त की जरुरत है।


पहाड़ के भोले भाले मासूमों को बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के कानून का हवाला देकर उठाना कहांं तक न्यायोचित है। छप्पन कोट की नाकेबंदी कर जब इनको घरों से जबरन उठाकर बेघर किया गया तब जनप्रतिनिधि कहां थे। सवाल जन प्रतिनिधि पर भी उठते हैं। कहीं न कहीं वे भी तो उनका जनप्रतिनिधित्व करते हैं। वह भी सत्ताधारी पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।  तो फिर बिना मोहलत, बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के कैसे इनके अधिकारों का हनन किया जा सकता है। जबकि इनको अगर वहां बसाया गया होगा तो किसी व्यवस्था के अंतर्गत बसाया गया होगा। जबकि मौलिक कर्तव्य संविधान के अनुच्छेद-51ए में वर्णित है जिन्हें भारत के हरेक नागरिक को 1976 से अक्षरशः पालन करना चाहिए। 'सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे।' हमारा संविधान आमजन को रोजगार के समान अवसर प्रदान करने की बात करता है। संविधान के अनुच्छेद 21 में स्पष्ट रुप से कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं रह सकता। तो फिर समानता के अधिकार से संपन्न उत्तराखंड के निर्माण की जिम्मेदारी सरकार के हाथों में है सरकार को चाहिए कि इनके उजड़े घर को बसागत करवाए।