देहरादून। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत कहते हैं कि भाजपा रोजगार का सवाल उठाने के लिए उन पर निरंतर हमले कर रही है। भाजपा को उनकी सलाह है, कम से कम उनकी आलोचना ऐसे लोगों से करवाएं, जो तथ्य जानते हों, जिन्हें रोजगार-स्वरोजगार यानी राजनीतिक परिपक्व हो। उनके लिए रोजगार एक राजनैतिक शब्द नहीं है बल्कि एक मिशन है। उन्होंने 3 साल उस मिशन पर काम किया है, दो दिन पहले मुख्यमंत्री ने कहा कि वे यहां के स्थानीय पत्थरों से मकान बनाने और निर्माण को प्रोत्साहित करेंगे, जिसकी उन्होंने प्रशंसा करते हुए कहा कि उन्होंने अपने कार्यकाल में इस विषय में शासनादेश भी जारी किया था और स्टोन कटिंग के लिए हरिप्रसाद टम्टा के नाम पर निर्माणाधीन स्थानीय शिल्पकला इंस्टीट्यूट, की आधार शिला रखी, जो गरुड़बाज में है, उसमें एक विषय के रुप में समावेशित करने के भी निर्देश दिये थे, काष्ट कला, पत्थर-स्टोन गार्विंग कला, वस्त्र कला, बर्तन कला, ऐपण कला सहित स्थानीय कई तरीके की कलाएं हैं, जिनको तराशने का काम उन्होंने सरकार में रहते किया। मगर वे खुद पर आक्रमक होते भाजपाईयों को एक चैलेंज देते हुए कहते हैं कि कम-ऑन भाजपा, मुझ पर आक्रमण करते रहिये, लेकिन वे किसी भी कीमत में खुद के जलाए दीए को बुझने नहीं देने वाले बल्कि उसमें तेल डालने का काम करते रहेंगे ताकि दीया जले तो चारों तरफ प्रकाश हो सके। इसलिए उन्होंने तय किया है कि, वे 1 अक्टूबर को चनौदा में गांधी आश्रम की परिक्रमा कर, कौसानी स्थित आश्रम में ध्यान करेंगे और तत्पश्चात 2 अक्टूबर यानी गांधी जयंती के अवसर पर प्रेम कुटीर ताड़ीखेत में, जहां आकर गांधी जी ने रचनात्मकता का संदेश देने का काम किया था उसकी परिक्रमा कर रोजगार- स्वरोजगार, स्थानीय उत्पाद, इत्यादि अनेक विषय हैं, जिन पर वे सरकार में रहते हुए काम करना चाहते थे मगर कार्यकाल पूरा होने की वजह से उसे दुबारा धरातल पर नहीं उतार पाए जैसे स्थानीय रोजगार, छोटे रोजगार, सबके प्रति जो उनका कमिटमेंट है, उस कमिटमेंट को फिर से दोहराने को प्रयासरत रहेंगे। लेकिन नगर निगम देहरादून के मेयर सुपुत्र पर हुई मेहरबानी के सवाल पर वे भी कुछ बोलते नहीं दिख रहें हैं। जबकि वे कांग्रेस के एक मजबूत स्तंभ हैं उनसे आमजन आशान्वित है कि कहीं न कहीं अगर आम जन की आवाज कोई उठा सकता है तो वह हरीश रावत ही है और उनके बाद कोई कांग्रेसी उत्तराखंडियत की बात धरातल पर करते कहीं दिखाई दे रहा तो वह उत्तराखंड वनाधिकार कांग्रेस के किशोर
उपाध्याय हैं जो अपनी सरकार यानी सत्ता धारी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष होते हुए हरीश रावत से भी उत्तराखंडियत के सवाल उठाते रहे। वे उत्तराखंडियों को केंद्र सरकार की सेवाओं में आरक्षण, हर माह गैस सिलेंडर, निशुल्क बिजली-पानी, जड़ी-बूटियों पर अधिकार, निशुल्क शिक्षा व स्वास्थ्य सेवायें, एक यूनिट आवास बनाने हेतु लकड़ी, बजरी व पत्थर निशुल्क, जंगली जानवरों द्वारा जन हानि पर 25 लाख रुपए क्षतिपूर्ति व परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी दी जाए, फसल के नुकसान पर प्रतिनाली रु 5000/- क्षतिपूर्ति दी जाय और राज्य में अविलम्ब चकबंदी की जाय। वे इस बात पर जोर देकर अपनी धरोहर, अपनी विरासत, अपना अधिकार, अपने हक-हकूक, अपनी गंगा, अपना हिमालय, अपने जन-जल-जंगल - जमीन को बचाने के लिए प्रदेश-भर में आवाज उठाते लगातार प्रयत्नरत हैं। ये उनकी नायाब सोच है उनका मानना है कि 'अरण्यजनों के प्राण 'वन' हैं।' वे कहते हैं कि अग्रेंजो तक ने उनके पुश्तैनी अधिकारों व हक-हकूकों को छीनने की धृष्टता न की, लेकिन आजादी के बाद जंगल जो उनकी जिंदगी का हिस्सा हैं उनसे छीन लिए गये। वे उत्तराखंडियत के इस मुद्दे पर कितने सजग हैं ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा मगर जिस उत्साह से वे इस विषय को लेकर देश-प्रदेश भर में उठाते आ रहे हैं वह काबिले तारीफ है। अगर विपक्ष का कोई धर्म निर्वहन कर रहा है तो सही मायने में ये दोनों नेता जमीन में हरकत करते देहरादून ही नहीं बल्कि प्रदेशभर में दिख रहे हैं। वैसे राजनीति में सरकार में हो रही खामियों को उजागर करना नेता प्रतिपक्ष का काम होता है और कांग्रेस का प्रदेश में कोई प्रतिनिधित्व कर रहा है तो वह कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह हैं जो न तो कहीं धरातल पर आवाज उठाते दिख रहे हैं और ना ही विपक्ष की आक्रमकता का कोई संदेश आमजन में दे रहे हैं। क्योंकि जो सत्ता में होता है वह अपने स्तर से चाहे किसी भी काम को करे वह उसके नजरिए से अच्छा ही होता है। जबकि विपक्ष उन खामियों पर प्रकाश डालने का काम करता है ताकि रह गई खामियों मे सुधार हो मगर सवाल संवैधानिक जिम्मेदारी का निर्वहन करने उपरांत भी कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है तो फिर लोकतंत्र कैसै जीवित रहेगा कौन लोक का प्रतिनिधित्व करेगा। लोक ने तो लोकतंत्र की महत्ता के मद्देनजर अपने अधिकारों का प्रयोग कर अपने अपने क्षेत्र से प्रतिनिधि चुनकर भेजा है और प्रतिनिधि है कि अपने और अपनों तक सीमित है तो फिर इन प्रशिक्षित बेरोजगारों की आवाज कौन उठाएगा। इनको कार्य करने के अवसर कौन देगा? मीडिया जिसे चौथा स्तंभ कहा जाता है अगर वह बेरोजगारों पर हो रहे ऐसे सौतेले व्यवहार पर चुप्पी साधे रखे तो कौन उसे चौथे स्तंभ की संज्ञा देगा कहीं न कहीं सच को सच कहने का माद्दा भी तो होना चाहिए। दिन-रात एक ही चीज परोसकर हित तलाशना भी तो अच्छा नहीं है। अगर हमारे संविधान ने हमें संवैधानिक अधिकार दिए हैं तो क्यों नहीं हम राजनीति में सम्यक दृष्टि का निर्वहन करते? जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान ने प्रदान की है तो क्यों नहीं सभी के लिए समान अवसर पैदा करतेे? क्यों अपनों को तरजीह और प्रशिक्षित बेरोजगारों को दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर करते। जब हमारे संविधान ने सभी को रोजगार की समानता दी है। तो कहीं न कहीं राजनीतिक इच्छाशक्ति ही है जो इसे शक्ल देने में कामयाब होती है और ऐसा नहीं येे सब कुछ किसी एक सरकार में होता है जो भी ताकत से उबरकर सत्ता के करीब पहुंचता है वहीं से इसकी नींव रखी जानी शुरु होती है। तो फिर सवाल यही उठता है कि प्रशिक्षित बेरोजगार उम्मीद किस से करे। ऐसे में राजनीति की अवसरवादिता सवाल छोड़ती हैं कि कहीं न कहीं आमजन को खुद के संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ेगी।
कम-ऑन भाजपा