लाॅक डाउन ने सरकार और पर्यावरण हितैषियों को सोचने को किया विवश। आखिर इतना बजट सरकारों द्वारा पर्यावरण पर साल दर साल खर्च किया जाता रहा लेकिन पर्यावरण जस का तस। आज बिना किसी खर्चे के प्रकृति ने लाॅक डाउन से उपजे समीकरण में अप्रत्याशित बदलाव के साथ सरकारों को वह कार्य मुफ्त में कर दिखाया। जिसके लिए कहीं न कहीं हम ही जिम्मेदार हैं लेकिन जिम्मेदार होने के बावजूद इस काम की जिम्मेदारी उठाए कौन? कहने को तो सोशल मीडिया अटा पड़ा होता है पर्यावरण हितैषियों से मगर वाकई में धरातल पर कौन कार्य कर रहा है ये यक्ष प्रश्न है। क्योंकि सोशल मीडिया के इस युग में कोई विरला ही होगा जो पर्यावरण का दर्द सीने में दफन कर अलख जगाने का कार्य कर रहा होगा। अक्सर पर्यावरणीय हितों की बात हम आसानी से प्रस्तुत तो कर देते हैं लेकिन अगर हकीकत में उस पर अमल करने की बात करें तो शायद ही हम उस पर खरे उतर पाते हों। हालांकि ये पिछले साल किया गया चिंतन है मगर आज मौजूदा परिपेक्ष्य में देखें तो जब तक लाॅक डाउन की समयावधि रही पर्यावरण बिना किसी खर्चे और चिंतन-मंथन किए बिना शुद्ध हो गया। कोसों दूर तक दिखने वाली पर्वत श्रृंखलाएं और नदियां जो गंदगी से अटे रहती थी, बिना किसी बजट खर्च किए दोनों ही साफ नजर आने लगी। अब, जब ये सब कुछ बिना किसी खर्चे के संभव हो सकता है तब सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर खामियां कहाँ रह जाती हैं? सरकारों की इच्छा शक्ति का भी कोई जबाव नहीं है। इनका अभियान चलता जरुर है मगर किस पर इनकी मार पड़ती है एक छोटे व मंझोले व्यापारिक प्रतिष्ठान चलाने वाले व्यापारी या सड़क पर चलने वाले रेहड़ी के साथ ही सड़क किनारे पटरी पर लगे खोके वालों पर जबकि कायदेनुसार मैनुफैक्चरिंग यूनिट पर ही सीधे कोई कार्रवाई की जानी चाहिए लेकिन ऐसा न होकर कमजोर व्यक्ति को हमारे तंत्र में तोड़ने का कार्य किया जाता रहा है अब पर्यावरण के हितैषी इसे अपने-अपने चश्मे से देखने का प्रयास करते हैं मगर सरकार की इन विसंगतियों का विरोध शायद ही किसी बुद्धिजीवी को करते देखा होगा। मेरा कहने का ये आशय नहीं कि उद्योगपतियों को हताश कर उन्हें तोड़ो बल्कि ये है कि उन्हें पालिथीन के बजाय पर्यावरण को फायदा पहुंचाने वाला कपड़े या जूट का थैला बनाने को प्रेरित करना चाहिए और सरकार से बन पड़ने वाली आर्थिक सहायता उन्हें उपलब्ध करानी चाहिए हो सके तो विदेश से प्रदूषण रहित ऐसी निर्मित सामग्री का अध्ययन कर उद्योगपतियों के एक प्रतिनिधि मंडल को इस विषय वस्तु का अध्ययन करने के लिए भेजना चाहिए जिससे देश की अर्थव्यवस्था भी मजबूती से उभर कर विश्व पटल पर आए और प्रकृति का पारीस्थितिकीय तंत्र भी बना रहे। आजकल जगह-जगह प्रकृति की स्वच्छंदता से जंगली जानवरों का भी खुलेआम घूमना दर्शाता है कि मानव ही प्रकृति का अवरोधक है। कहने को मां गंगा विश्व धरोहर है लेकिन उसके उद्गम स्थल से ही उसे प्रदूषित करने का कार्य हमारा समाज वर्षों से करते आ रहा है। ग्लेशियरों का लगातार खिसकना कहीं न कहीं जलवायु परिवर्तन के भी संकेत दे रहा है। जब ग्लेशियर ही नहीं रहेंगे तो समझो हमें अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जूझना ही पड़ेगा। ग्लेशियरों का पीछे खिसकना हमारे लिए शुभ संकेत नहीं है। इसीलिए अगर वाकई में पर्यावरण को बचाना है तो धरातल पर पृथ्वी के संतुलन को बनाए रखने के लिए मन की भावनाओं के साथ साथ इच्छा शक्ति से कार्य करने की जरूरत है। क्योंकि तीन माह के लाॅक डाउन ने साबित कर दिया है कि बिना पैसे खर्च किए सब कुछ हो सकता है अगर जरुरत है तो सरकारों की इच्छा शक्ति की। ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं। आप इस पर क्या सोचते हो अपनी राय बिना किसी राग द्वेष से ऊपर उठकर जरुर दें। महज सेल्फी युग तक सीमित न रहें।
पर्यावरण किस राह पर.....