दुःखद! केरल में एक गर्भवती हाथिनी के साथ किए गए कृत्य को क्या नाम दिया जाए साक्षरता या निरक्षरता? जहां तक हमारा मत है ऐसी साक्षरता से अनपढ रहना ही बेहत्तर होगा। कम से कम इंसानियत तो बचे रहेगी अब भला जो हुआ उससे क्या हासिल हुआ दो बेजुबानों की एक साथ हत्या कर डाली। मानवता की संवेदना को मारने का काम साक्षरता वाले राज्य में किया गया। केरल में जो हुआ उसके बाद अब शायद कहावत बदलनी पड़े क्यों कि मानव अब जानवरों से भी बदत्तर बर्ताव करने लगा अगर वाकई में केरल एक साक्षर राज्य है तो निरक्षरता वाले काम वहाँ के आमजन को शोभा नहीं देता ये भी हमारे पारिस्थितिकीय तंत्र का हिस्सा हैं जिस प्रकार हम अपनी उपयोगिता को महत्व देते है वैसे ही समाज इनकी उपयोगिता के बगैर अधूरा है। एक तरफ पशु-पक्षियों के संरक्षण की हम आए दिन बात करते हैं और दूसरी तरफ हमारा ही साक्षर समाज जाहिलों वाला कृत्य करता है। आखिर ऐसा कर उसे क्या हासिल हुआ होगा? क्या हम किसी की जान लेने के हकदार हैं तब वह इंसान हो चाहे जानवर लेकिन ये कृत्य तो जानवरों की तरह केरल में कर डाला। जब कोई व्यक्ति दिमाग से परे हरकत करने लगे तो अक्सर पागल कहा जाता है लेकिन जब सूझ-बूझ के साथ कोई व्यक्ति गलत हरकतें करते दिखे तो अक्सर मुंह से छूट ही जाता है क्या जानवरों की तरह बर्ताव कर रहा है। केरल में जो हुआ उसको देख लगता है कि अब शायद कहावत ही बदलनी पड़े। मामला तब प्रकाश में आया जब केरल के ही मालापुरम जिले के वन अधिकारी मोहन कृष्णन ने सोशल मीडिया में एक पोस्ट डाली उनकी पोस्ट कहती है कि जंगली हथिनी खाने की तलाश में जंगल से बाहर निकलकर एक गांव में पहुंची थी। गांव में घूमते समय कुछ लोगों ने पटाखों से भरा अनानास उसे खिला दिया। गर्भवती हथिनी ने अनानास जैसे ही मुंह में डाला, वैसे ही वह फट पड़ा। हथिनी का मुंह और जीभ बुरी तरह झुलस गया। हथिनी गर्भवती थी जिससे वह थोड़ी घबरा भी गई और इसके बाद ये बेजुबान पीड़ा से कराहते हुए तड़फने लगी और मुंह में लगी आग को बुझाने पानी के तालाब की ओर गई जहाँ उसने अपने मुंह की जलन को शांत तो किया लेकिन गर्भवती होने से कारण उसने विगत माह की 27 तारीख बुधवार के दिन नदी में ही दम तोड़ दिया। हथिनी की तस्वीर के साथ एक भावुक फेसबुक पोस्ट में वन अधिकारी मोहन कृष्णन लिखते हैं "असहनीय दर्द के कारण गांव की गलियों में भागते समय भी उसने एक भी इंसान को नुकसान नहीं पहुंचाया। उसने एक भी घर नहीं रौंदा। ” तो फिर बेजुबान को ऐसा नुुकसान क्यों पहुंचाया गया। हथिनी को बचाने की कोशिश करने वाले मोहन कृष्णन पोस्ट में लिखते हैं कि दो हाथियों की मदद से उसे नदी से बाहर निकालने में मशक्कत की गई लेकिन वह बाहर नहीं आई। 27 मई की शाम चार बजे उसने नदी में खड़े-खड़े ही दम तोड़ दिया। मोहन कृष्णन ने कहा, "वह सुयोग्य विदाई की हकदार थी। वे कहते हैं कि उसे एक लॉरी में जंगल के भीतर ले गए। वहां उसे लकड़ियों में लेटाया गया, उस जमीन पर जहां वो खेलते हुए बड़ी हुई। उसके अंदर पलने वाले भ्रूण को देख पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर तक का दिल पसीजा और वे भावुक होकर कहने लगे कि वह अकेली नहीं थी।