आज कांग्रेस के असम प्रभारी व एआईसीसी महासचिव हरीश रावत ने अपनी कलम से अपने 52 साल के राजनीतिक तजुर्बे को कुछ अपने ही अंदाज में बयां किया। क्यों किए, ये तो वही जाने लेकिन वे छात्र जीवन में ऐसे किसके मुरीद हुए जिससे उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ली। इसको विस्तार से जानने के लिए उन्हीं लेख से......
हाँ समय आ गया है।
वे कहते हैं सक्रिय राजनीति में बने रहना, कोई सामान्य निर्णय नहीं होता है। यदि आप सत्तर वर्ष की लक्ष्मण रेखा को पार कर चुके हैं तो, इस रेखा से आगे बढ़ कर सक्रिय राजनीति में रहना सामान्य निर्णय नहीं है। व्यक्ति को अपनी शारीरिक क्षमता व पारिवारिक स्थिति दोनों का आंकलन करना होता है। सक्रिय राजनीति वह भी प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति में बने रहना, बढ़ती उम्र के साथ अत्यधिक कठिन कार्य है। उम्र के साथ आपका दायरा व आपसे अपेक्षायें, दोनों बढ़ती जाती हैं। चुनावी राजनीति में आपकी वरिष्ठता आपसे अपेक्षायें बढ़ाती जाती हैं। मतदाताओं से लेकर पार्टी के सहयोगी व कुटुम्बीजन, सबकी अपेक्षायें बढ़ जाती हैं। उन्हें लगता है आपकी वरिष्ठता को देखते हुये आपकी अनसुनी हो ही नहीं सकती है। ''आपका तो कहना भर काफी है'' यह एक आम जुमला है, जो आपको सुनना ही है। सर हिलाने के अलावा आपके पास कुछ कहने को नहीं होता है। आपको आलोचकों के प्रति अधिक संवेदनशील होना पड़ता है। उम्र, आपसे अधिक सहनशीलता व एकोमोडेटिव होने की अपेक्षा करती है। जबकि धरातलीय वस्तु स्थिति इसके विपरित होती है। उम्र के साथ आपकी काम के पीछे पड़ने की क्षमता कम होती जाती है। आप अधिक भाग-दौड़ नहीं कर पाते हैं। आप अनौपचारिक से औपचारिक अधिक हो जाते हैं। आप आक्रमक नहीं हो सकते हैं, इसलिए लोग आपकी गारंटी लेने लगते हैं। लोग जानते हैं, कुछ भी करो आप उन्हें नुकसान नहीं पहुंचायेंगे। पार्टी या क्षेत्रीय राजनीति में लोग आपका स्थान लेना चाहेंगे, जो स्वभाविक है। वरिष्ठता आपका कद बढ़ाती है, तो उसकी चाह रखने वालों की संख्या भी स्वतः बढ़ती है। आपको प्रत्येक स्थिति में प्रतियोगितात्मक रहना पड़ता है। प्रतियोगिता तीव्रतर होती जाती है और आपकी शारीरिक व मानसिक फिटनेस घटती जाती है। पारिवारिक जिम्मेदारियां भी बढ़ते-2 बहुत बढ़ चुकी होती हैं।
यह एक सामान्य कथानक है, जिसे 65-70 वर्ष के आस-पास प्रत्येक राजनैतिक व्यक्तित्वों को झेलना पड़ता है, यदि सबको नहीं तो 75 प्रतिशत लोगों को इस स्थिति से गुजरना ही पड़ता है। यह लाॅ आॅफ नैचुरल डिकेईगं है। स्वभाविक क्षमता क्षरण है। यह क्रिया स्वयं में प्राकृतिक न्याय भी है। राजनैतिक, सामाजिक क्षेत्र में सुधार लाने के लिये आवश्यक है। कुछ लोग इसके अपवाद हो सकते हैं। देश में अनेक ऐसे नाम हैं, जो ओल्ड इज गोल्ड की कहावत को सही रूप में चरितार्थ कर रहे हैं। बढ़ते समय के साथ देश व पार्टी में उनका स्थान और प्रभावी होता जाता है। ऐसे लोग नेतृत्व कहलाते हैं, उनकी स्वीकार्यता, प्रतिद्वंद्विता की सीमा रेखा से आगे बढ़ चुकी होती है। इस तथ्य के बावजूद मेरी समझ में ऐसे लोगों के लिये भी स्वनिर्धारित कट आॅफ लाईन होनी चाहिये। पार्टी व समाज दोनों के लिये नेतृत्व मार्गदर्शक व उदाहरण हो सकता है, मगर आज के प्रतिस्पर्धी युग में ठहराव के लिये कोई स्थान नहीं है। ठहराव को गति को स्थान देना चाहिये, यही स्वस्थ नियती है। देश की कुछ पार्टियों में एजिंग फैक्टर चिन्ताजनक स्थिति में है। हमारी पार्टी में भी इस स्थिति को आने से रोकने का प्रयास किया गया, जो कुछ सीमा तक सफल रहा है। हमें पार्टी के तौर पर आगे बढ़ने के लिये इस प्रयास को और अधिक अवसर देना चाहिये। एक अच्छी जिताऊ क्रिकेट टीम में अनुभव व युवापन का सामंजस्य रखा जाता है। अन्यथा स्थिति में कभी भी ज्यादा अनुभवी टीम एकाएक खेल से उखड़ जाती है और लगातार लड़-खड़ाने लगती है। हमारी पार्टी की कुछ हारों का विश्लेषण भी इस कथानक की पुष्टि करता है। एक भविष्य की पार्टी को ''गो यंग'' के सिद्धान्त को दृढ़ता से अमल में लाना चाहिये और एकाध हार से घबराना नहीं चाहिये। युवा को लगातार अवसर व विश्वास देना पार्टी के लिये आवश्यक है।
खैर यह सब सैद्धान्तिक बहस या प्रतिक्रिया का हिस्सा है। मैं व्यक्ति के तौर पर अपना मूल्यांकन करना चाहता हूँ। राज्य में 50 वर्ष से नीचे का हिस्सा 80 प्रतिशत उत्तरदायित्व को सभालें। इसे सुनिश्चित करने में मुझे अपना योगदान देना चाहिये। वर्ष 2002 में व 2017 में यह मौका मेरे हाथ में आया। मुझे खुशी है, मैंने दोनों बार खतरा उठाकर भी युवाओं को मौका दिया। आज पार्टी का अग्रणीय दस्ता ऐसे ही युवाओं का है। इनमें से अधिकांश युवा पर्याप्त सम्भावनाओं युक्त है और राज्य के युवा व चुनौतीपूर्ण स्वरूप के अनुरूप हैं। ऐसे युवाओं को एक से अधिक बार अवसर दिये जाने चाहिये। यदि वे राजनीति व समाज दोनों में सक्रिय हैं, तो उन्हें उनके स्थान की सुरक्षा का भरोसा भी होना चाहिये। मेरी उम्र के लोगों को उन्हें सलाह व प्रोत्साहन देने के लिये सहज तत्पर रहना आवश्यक है। 2003-04 में पंचायतों व नगर पंचायतों को मैंने बड़ी संख्या में युवाओं को अवसर दिया और उन्होंने मुझे निराश नहीं किया। इस बार 11 विधायकों में सात युवा या अधेड़ हैं। विधानसभा की कार्यवाही व वाद-विवाद में अपना अच्छा प्रभाव छोड़ रहे हैं। लोकसभा के चुनाव हम चूक गये। मुझे स्वयं अपने स्थान में अपने पुत्र को प्रस्तावित करना चाहिये था। पौड़ी में पार्टी साहस कर पायी, चुनाव भले ही हार गये, मगर अगले 20 वर्षों की सम्भावना खड़ी हो गई है। राष्ट्रीय स्तर पर भी हमें लगातार युवा नेतृत्व पर भरोसा बनाये रखना चाहिये।
मैंने विधिवत 1969 में लखनऊ विश्वविद्यालय में कांग्रेस की सदस्यता ली थी। छात्रसंघ के एक शिष्टमण्डल के साथ हम लोग इंदिरा गाँधी को लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्रों को संबोधित करने हेतु निमंत्रण देने गये थे। उन्होंने निमंत्रण स्वीकार कर कार्यक्रम की गरिमा बढ़ाकर, विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं का दिल जीतकर चली गई। उस समय वे यूथ आईकाॅन थी। उन्होंने कई क्रान्तिकारी कदम उठाकर युवाओं के मन को जीत लिया था। मैं और मेरे सैकड़ों साथी उसी सम्मोहन में बंधकर कांग्रेस से जुड़े। कई लोग आज भी कांग्रेस में हैं। कुछ समय के साथ भटक गये हैं। यूं मैं छात्र राजनीति व कम्युनिस्ट विचारधारा से थोड़ा-2 सन् 1967 से जुड़ गया था। वर्ष 2020 के आगमन के साथ मुझे कांग्रेस की सक्रिय राजनीति में 52 वर्ष हो जाएंगे।