देहरादून।, विगत साल अपने ही सोशल मीडिया में लिखे इस आलेख से सरकार से आगामी 3 नवंबर से इस पर भी अमल करने को कहूंगा। पहाड़ का पहाड़ बने रहने में ही भलाई है इसके साथ किसी किस्म की छेड़-छाड़ नहीं किया जाना चाहिए। हमे इसे मैदान बनाने की कवायद के बजाय ऐसे ही विकास की मुख्यधारा से जोड़ना चाहिए, जिससे पहाड़ अपनी प्राकृतिक सुंदरता, नैसर्गिक छटाओं को बिखेरता रहे और सैलानी इस सुंदरता को निहारने के साथ ही यहाँ की मुख्य कला कृतियों का कायल भी बने रहे। हकीकत में कुछ ऐसी रुप-रेखा पहाड़ के विकास की होनी चाहिए। अब सवाल मुख्य विषय वस्तु पर केंद्रित करते हुए कि आखिर पहाड़ के खण्डहर होते मकान का दोषी कौन? दोषी कोई और नहीं आप और हम हैं। नेता भी कोई और नहीं, हमारे बीच से हमारा ही चुना हुआ जनप्रतिनिधि है। जिसे हमने ही आम और खास बनाया। असल मायने में पहाड़ को हम जब अपने नजरिए से देखते हैं तब हम ये भूल जाते हैं कि पहाड़ की असल जरुरतें हैं क्या? धरातल पर रहकर कैसे इनका निराकरण किया जा सकता है। इस ओर सरकार का ध्यान केंद्रित होना चाहिए। पलायन की असल वजह है क्या या दूसरे शब्दों में यूं कहें कि शहरीकरण की वजह से आज पहाड़ और पहाड़ियत विलुप्त के कगार पर आ खड़ी हो गई है। क्योंकि हमने धारणा जो बना दी कि विकास शहर में रहकर ही हो पायेगा। पहाड़ ने पहाड़ियों को क्या नहीं दिया? क्या हमारे पुरखे बगैर संसाधनों के जीवित थे। अंतर अब और तब का सिर्फ इतना भर है कि आज समय के हिसाब से विकास तेजी से हो रहा है पहले की तुलना में बहुत कुछ बदलाव हो चुका है। तब समय के हिसाब से जो कुछ था उसमे वे लोग खुश नजर आते थे। लेकिन हमारी महत्वाकांक्षा इससे कही ज्यादा है। इसलिए हमे विकास ठहरा हुआ सा भी लगता है। जबकि सब समयानुकूल बदलते जा रहा है। हमे ये भी ध्यान रखना होगा हमारे पूर्वजों ने भी तो विपरीत हालातों में उन्हीं पहाड़ियों में जीवन यापन किया और आज उनके इ संघर्ष का परिणाम हम हैं जो उनकी विरासत को छोड़ मैदान को स्वीकार कर रहें हैं। क्योंकि हमारी धारणा विकास पर केंद्रित ही नहीं है। पहाड़ के पलायन का दोषी कोई एक नहीं कई एक कारण है। नेता अगर हमने चुना है तो कोई जरुरी नहीं कि उस गलती को बिना विकास के दोबारा दोहराना है। हम उस करार को तोड़ भी तो सकते है। यहाँ अभी बिहार या यूपी जैसा कुछ भी नहीं है। अगर सब कुछ इसी ढर्रे पर चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जिस दिन यहाँ के हालात भी कुछ ऐसे होने सुनिश्चित है। तब जिम्मेदार कोई और नहीं हम और हमारे नीति नियंता ही होंगे जो किसी एक की विरासत को आगे बढ़ाने का काम करेंगे। जब परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है तो फिर ऐसी बेरुखी क्यों? क्यों खुद के विकास को ज्यादा तरजीह दी जाती है? सही मायने में पहाड़ का कोई भी विकास नहीं चाहता सिर्फ और सिर्फ अपने विकास तक राजनीति को केंद्रित किये हुए हैं। पहाड़ तो राजनीति की धुरी बनकर रह जाती है। कभी यूकेडी इसी के बूते एक क्षेत्रीय दल के रुप में उभर कर आगे आई थी लेकिन जिस तरह का नंगा नाच यूकेडी में एक कुर्सी को लेकर देखा गया वह सर्वविदित है। ऐसे हालातों में कोई क्यों किसी दल पर विश्वास करे? हाल ही में देश के दो राज्यों में भाजपा और कांग्रेस दोनों के ही परिणाम कुछ संतोषजनक नहीं आए। सत्ता वापसी को भाजपा गठबंधन के साथ और कांग्रेस अपने राजनीतिक जोड़ -तोड़ की कोशिशों में लगे हुई है। सही मायने में आज व्यक्ति विशेष को विकास की शर्तों पर समर्थन देना पहाड़ की मांग भी बन गई है लेकिन अगर पहाड़ का आम जन-मानस इसे इस शर्त पर सहस्र स्वीकार करता है तभी एक नई परिभाषा बन सकेगी। अन्यथा जिस ढर्रे पर हम चल रहें है उससे उत्तराखंड का विकास नहीं होने वाला इस के लिए सबको कुछ नव पहल करने की जरुरत है। जब तक पार्टी में हाईकमान संस्कृति (की शर्तों ) से मुखियाओं की ताजपोशी होती रहेगी तब तक प्रदेश प्रगति पथ पर आगे नहीं बढ़ने वाला। अगर जन प्रतिनिधि का चयन जनता से होता है तो कुछ उसी तर्ज पर जनता के जनमत से हो ताकि रिमोट कार्य पद्धति पर विराम लग सके। उत्तराखंड का आम जन-मानस पृथक राज्य के बावजूद भी आज उसी कल्चर को पसन्द कर रहा है। अपनी काबिलयत पर तो काबिल व्यक्ति को भी शक होने लगा है। इतना तो है कि अब उत्तराखंड उत्तराखण्डियों के बजाय धनबल का हो चला है। इस मिथक को तोड़ने की जरुरत है। इसके लिए जनता को ही जागरुक होना पड़ेगा विकास जनता के हाथों में है और तय भी जनता ने ही करना है। सरकार "राज्य स्थापना दिवस" के एक सप्ताह के रूप में मनाने जा रही है "राज्य स्थापना सप्ताह" मनाने के इस नए अनुप्रयोग से उत्तराखंड को कितना लाभ मिलता है ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा पर जिस तरीके से उत्तराखंड सरकार देश-विदेश में रह रहे सभी उत्तराखंडी प्रवासियों को गांव से जुड़ने की मुहिम का आव्हान कर रहे हैं वह एक नायाब पहल है पर सरकारी खजाना इस नव पहल में न लुटने पाए और संदेश भी सार्थक जाए तभी मुहिम की सार्थकता होगी। 03 नवंबर 2019 से 09 नवंबर 2019 तक राज्य के अलग-अलग स्थानों पर निम्न कार्यक्रम आयोजित करने जा रही है। अब ये देखना दिलचस्प होगा कि सरकार की इस मुहिम से उत्तराखंडवासी कितने लाभान्वित होते हैं
● 03 नवंबर 2019–रैबार कार्यक्रम–टिहरी गढ़वाल
● 04 नवंबर 2019–सैनिक सम्मेलन–देहरादून
● 06 नवंबर 2019–महिला सम्मेलन–श्रीनगर गढ़वाल
● 07 नवंबर 2019–युवा सम्मेलन–अल्मोड़ा
● 08 नवंबर 2019–फ़िल्म कॉन्क्लेव–मसूरी
● 09 नवंबर 2019–भारत-भारती कार्यक्रम–देहरादून
आइए उत्तराखंड सरकार अगर जनसरोकार से जुड़ी कुछ नायाब पहल करने जा रही है तो इस मुहिम में जन सह भागीदारी करें