सहानुभूति के सहारे वैतरणी पार

देहरादून।, पिथौरागढ़ विधानसभा से विधायक और प्रदेश सरकार में नंबर दो की हैसियत वाले मंत्री रहे प्रकाश पंत के असामयिक निधन से रिक्त हुए स्थान की पूर्ति के लिए उपचुनाव की रणभेरी बजने वाली है सत्ता पक्ष जहां सहानुभूति के सहारे अपनी तादात में इजाफे की गणित बैठाए हुए है तो विपक्ष इस मौके को भुनाने में कोई कोर कसर छोड़ने के मूंढ़ में बिल्कुल भी नहीं है यहाँ तक कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत ने तक अपने प्रत्याशी की पहल कई रोज पहले सोशल मीडिया के माध्यम से अनऔपचारिक रुप से कर दी है जबकि मयूख महर खुद ही अनिच्छा जाहिर कर रहें हैंं। 
हरीश रावत ने ऐसा क्या कहा, उनकी बातों पर गौर फरमाएं। "पिथौरागढ़ विधानसभा सीट के उपचुनाव में चुनाव लड़ने का हक और सर्वोत्तम उम्मीदवार, दोनों ही मयूख महर हैं, वही वहां से कांग्रेस के उम्मीदवार होंगे। मुझे विश्वास है, वह मेरा अनुरोध नहीं टालेंगे। 2017 में उनकी हार विकास के ऊपर, बड़ा आघात थी और इस समय मुझे पूरा भरोसा है कि, पिथौरागढ़ का जनमानस मयूख महर के साथ खड़ा होगा। हरीश रावत, दूसरों के लिये स्थान बनाता है, मैं हक कल्मी नहीं करता हॅू। मैं शारीरिक रूप से ऐसी स्थिति में नहीं हूँ कि, बहुत चुनावी राजनीति में भाग ले सकूं, हाॅ यह अवश्य है कि, मयूख महर उम्मीदवार होंगे और हरीश रावत कम से कम 5 से 7 दिन पिथौरागढ़ में प्रवास करेगा।"अब संगठन अपने कद्दावर नेता व पूर्व मुख्यमंत्री की बातों को कितनी तरजीह देता है। इस ओर सभी नजर बनाए हुए हैं पर इतना जरूर है सत्ता के आगे कांग्रेस तभी मजबूती से उभरेगी जब धरातल पर कार्य करने वाले नेता को अवसर देगी बाकि ये अभी तक का इतिहास रहा शायद ही कोई प्रत्याशी ऐसा रहा हो जिसने अपने कार्यों के बूते सत्ता को चुनौती देकर नया इतिहास बनाया हो, वह भी तब, जब उनकी पार्टी विपक्ष की भूमिका में हो। वहीं भाजपा अपने संघर्ष के दौर को भूल कर उन लाखों कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज कर दिवंगत पुण्यात्मा का पीछा अब भी नहीं छोड़ पाए रही है उनके नाम की सहानुभूति के सहारे नैया पार लगाने को उनकी धर्म पत्नी चंद्रा पंत के नाम पर मुहर लगा चुकी है खैर चुनाव अगर भाजपा के पक्ष में रहा तो ये सहानुभूति के आधार पर मिली जीत होगी ना कि कार्यकर्ताओं की। अब सवाल पार्टी की निष्ठा पर उठता है कि आखिर कार्यकर्ताओं अपने अथक परिश्रम से सींचने के बाद भी क्या सदैव ये टिकट मिलने से वंचित ही रहेंगे। इस तरह के फैसले कार्यकर्ताओं के लिए नासूर का काम करते आए हैं। अगर कहीं कोई मिसाल कायम करनी है तो उसके लिए परिवार वाद से ऊपर उठकर काम करना पड़ेगा। जीत-हार तो विषय ही अलग है पर ज्ञान बांटने की सार्थकता ही तब है जब हम उसे खुद पर अमल करते हों।