पाने-खोने को लेकर मंथन कब तक

9 नवंबर 2000 को कई वर्षों तक आन्दोलन के पश्चात भारत गणराज्य के सत्ताइसवें राज्य के रूप में उत्तराखंड राज्य की प्राप्ति हुई। 'राज्य स्थापना दिवस' पर अमूमन राजनेताओं को ये कहते जरुर सुना कि इस राज्य को शहीद आंदोलनकारियों के सपनों का राज्य बनाये जाने की आवश्यकता है। मगर तब सवाल एक ही उठता है कि इसके लिए पहल कौन करेगा? जिन्हें जनता अपना प्रतिनिधि बनाकर विधानसभा तक भेजती वे तो पांच सालों में जनसंवाद की उम्मीदों पर शायद ही खरे उतरते हों। भौगोलिक विषमताओं वाले गैरसैण को 20 साल में भी स्थाई राजधानी बनाने में राजनेता असफल रहे। आज भी राजनीति की धुरी है। परिणाम स्वरूप देहरादून अस्थाई राजधानी बने हुई है। पहाड़ आज वीरान हो चले हैं। जंगली जानवरों ने भी वनों को छोड़कर आबादी की ओर पलायन कर दिया है और आबाद गांव वासियों ने असुविधा की वजह से पलायन कर मैदान में 50 /100 गज में सिमटकर खुद के लिए ठौर तलाश लिया है। अब नेता खुद के लिए पहाड़ को सुरक्षित समझते हुए ठौर तलाशते हुए पहुंच तो जाते है पर विडंबना ही यही है कि जीत कर जाने के बाद वे भी मैदान के हो जाते हैं। वे तब बिजनौर, सहारनपुर को उत्तराखंड में मिलाने की नई राजनीतिक धुरी तैयार करने में मशगूल रहते हैं मानो उन्हें पहाड़ों से कोई सरोकार न हो। फिर ये स्वांग कैसा और किसके लिए किए जाते हैं। बस चुनाव नजदीक आते ही सभी को जनसंवाद और विकास कार्य याद आते हैं। तब चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष दोनों ही वोट बैंक की राजनीति में मशगूल देखे जा सकते हैं। राजनेता सत्ता में आते ही पांच साल तक उन शहीदों को भूल जाते हैं जिनकी शहादत फलस्वरुप विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले राज्य की प्राप्ति हुई। अगर कुछ बदलता है तो सत्ता में बने रहने के समीकरण बदलते देखे जा सकते हैं। जनता तो सिर्फ और सिर्फ बेचारी बने रह जाती है उसके लिए कहावत भी है 'तब पछतावे होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।' क्योंकि हम पहले खुद ही एक ऐसा चुनाव कर देते हैं कि बाद मेें कोसते फिरते हैं। इसलिए जब तक जनता संदेश देने में सफल नहीं होगी तब तक विषमताओं वाले प्रदेश की कोई सुध नहीं लेने वाला। ये तो प्रकृति का भी नियम है कि वह बदलाव चाहती है जब प्रकृति बदलाव में विश्वास रख सकती है तो फिर मानव क्यों खुद को नहीं बदल सकता। प्रदेश के समुचित विकास के लिए नए अनुप्रयोग करने जरुरी हैं क्योंकि जब तक हम एक ढर्रे से हटकर कुछ नया नहीं करेंगे तब तक बदलाव की उम्मीद करना भी बेईमानी होगी। इन 19 सालों में क्या खोया, और क्या पाया ? इस पर आत्म अवलोकन करने की आवश्यकता है। मैंने खुद आत्म अवलोकन कर पाया कि बगैर बदलाव के कुछ भी संभव नहीं है वह भी मिथकों को तोड़कर नये योग्य कार्य कुशल व्यक्तियों को, जो जनता से बेहतर संवाद स्थापित करता हो उसे जरुर प्रदेशहित में एक अवसर दे देना चाहिए। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती देश की राजधानी दिल्ली में हुआ नया अनुप्रयोग किसी से छिपा नहीं है। अब धरातल पर वे कितने खरे उतरे ये जिरह का अलग विषय हो सकता है लेकिन दिल्ली में जिस तरह से उन्होंने नया अनुप्रयोग कर दो विधानसभा चुनाव में अपने लिए जगह बनाई ये दिल्ली वासियों को भी संवरने-सुधरने और एहसास करवाने का एक अवसर मिला। जिन सरकारी स्कूलों में अपने बाल्यों को भेजने से दिल्लीवासी कभी कतराते थे आज उनके स्तर में अचानक एक ऐसा बदलाव आना भी परिवर्तन है और ये तभी संभव हो सकता है जब हम बदलाव में एक बार विश्वास करेंगे तभी मिथक भी थोड़े जा सकते हैं बशर्ते इस ओर हम पहल करें। शहीदों के सपनों का उत्तराखंड तब तक संभव नहीं जब तक हम इस दिशा में कदम नहीं बढ़ातेे। राज्य स्थापना दिवस पर शहीद आंदोलन कारियों के नाम का सहारा लेने से उत्तराखंडी राजनेेताओं को बचना चाहिए और धरातल पर कुछ नयाकर नजीर पेश करनी चाहिए। राज्य 20 वें साल मेें प्रवेश कर 9 मुख्यमंत्री तो दे ही चुका है लेकिन विकास की दौड़ में जिस रफ्तार सेे मुख्यमंत्री बने उस हिसाब से उत्तराखंड शायद ही कुछ नया अपने नाम कर पाया हो। जिस प्रदेश की एक स्थाई राजधानी तक न हो उससे शहीदों के सपनों का उत्तराखंड की उम्मीद करना ही बेईमानी होगी।